Saphala Ekadashi Vrat ki kahani/katha.

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सफला एकादशी:

हिन्दू धर्म में एकादशी का पावन दिन भगवान विष्णु को समर्पित होता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, सफला एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति के सभी कार्य सिद्ध और सफल हो जाते हैं। साथ ही इस दिन व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। सफला एकादशी का व्रत पौष मास की एकादशी तिथि को रखा जाता है। एकादशी तिथि के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करने के बाद व्रत का संकल्प लें। पूजा में भगवान को धूप, दीप, फल, फूल और पंचामृत अर्पित करें। इसके साथ ही भगवान को नारियल, सुपारी, आमला, लौंग चढ़ाएं। एकादशी तिथि के दिन रात्रि में सोना नहीं चाहिए, इसलिये रात्रि जागरण करें और भगवान श्री हरि के नाम का जाप करें।

सफला एकादशी व्रत की कथा:

एक समय की बात है, महिष्मान नाम का एक राजा चंपावती नामक नगरी में रहता था। राजा महिष्मान के चार पुत्र थे। उनका सबसे बड़े पुत्र का नाम लुम्पक था, वह बहुत ही दुष्ट और दुराचारी था। लुक्पक अपने पिता का धन वेश्याओं के यहां जाकर व्यय किया करता था। वह हमेशा ही वैष्णव, ब्राह्मणों आदि को निंदा करते प्रसन्न होता था। सारी प्रजा उसके कुकर्मों के कारण बहुत दुखी रहती थी। प्रजा में से किसी में भी इतना साहस नहीं था कि वह राजा से उसकी शिकायत कर सके, सभी चुपचाप उसके अत्याचार को सहन करने के लिए विवश थे। लेकिन बुराई बहुत कम समय तक छुपी रहती है, एक दिन राजा को लुम्पक के कुकर्मों का पता चल हो गया। राजा महिष्मान ने क्रोध में आकर लुम्पक को अपने राज्य से निकाल दिया। राजा के लुम्पक को राज्य से निकालते ही सभी ने उसका त्याग कर दिया। अब लुम्पक सोचने लगा कि मैं क्या करूं? कहां जाऊं? आखिरकार अंत में उसने रात के समय अपने पिता के राज्य में ही चोरी करने की योजना बनाई। अब लुम्पक सारा दिन राज्य से बाहर रहता और रात के समय जाकर चोरी करता और निर्दोष पशु–पक्षियों को मारकर उनका भक्षण करता था साथ ही राज्य की प्रजा को भी मारता था और उन्हें कष्ट देता था। जब कभी वह नगर में चोरी करते पकड़ा भी जाता था तो पहरेदार डर की वजह से उसे छोड़ देते थे। परन्तु कहा जाता है कि कभी–कभी अनजाने में ही प्राणी को ईश्वर की कृपा प्राप्त हो जाती है।

लुम्पक जिस वन में रहता था वह वन भगवान नारायण को भी बहुत प्रिय था। वन में एक पीपल का बहुत ही प्राचीन पेड़ था, उस वन को सभी देवताओं के खेलने की जगह मानते थे। लुम्पक उसी पेड़ के नीचे रहता था।  पौष मास के कृष्ण पक्ष की दशमी को लुम्पक वस्त्रहीन होने के कारण तेज ठंड से ठिठुरते हुए मूर्छित हो गया। उसके हाथ–पैर ठंड की वजह से अकड़ गए और वह सो भी नहीं सका। लुम्पक की वह रात बहुत ही कठिनता से बीती और सुबह होने पर भी उसकी मूर्छा नहीं टूटी, और वह सारा दिन वैसे ही पड़ा रहा। जब सूर्य की गर्मी उसके शरीर पर पड़ी तो उसे थोड़ा सा होश आया, तो वह अपने स्थान से उठकर किसी प्रकार से चलते हुए भोजन की तलाश करने लगा। लेकिन ठंड से उसके हाथ–पैर काम नहीं कर पा रहे थे अतः वह शिकार करने में सक्षम नहीं था। इसीलिए उसने पृथ्वी पर गिरे हुए फलों को उठाया और पीपल के पेड़ के नीचे आ गया। तब तक सूर्य भगवान अस्ताचल को प्रस्थान कर गए थे। लुम्पक भूखा होने के बाद भी उन फलों को नहीं खा पा रहा था क्योंकि वह तो हमेशा ही जीवों को मारकर उनका मांस खाता था और फल तो वह कभी भी नहीं खाता था। उसने उन फलों को पीपल की जड़ के पास रख दिया और हाथ जोड़कर बोला –हे प्रभु! यह फल आपको ही अर्पण हैं! इन फलों से आप ही तृप्त हों! ऐसा कहकर लुम्पक रोने लगा। उस दिन सफला एकादशी का दिन था, और अनजाने में ही उस महापापी लुम्पक से एकादशी का व्रत हो गया। सारी रात रोने और भूखा रहने की वजह से उस पापी का रात्रि जागरण भी हो गया। 

उसके इस रात्रि जागरण और उपवास से श्री हरि विष्णु बहुत प्रसन्न हुए और उसके सभी पाप नष्ट हो गए। जैसे ही सुबह हुई एक दिव्य रथ अनेक सुंदर वस्तुओं से सजा हुआ आया और लुम्पक के सामने खड़ा हो गया। उसके खड़ा होते ही आकाशवाणी हुई–कि हे युवराज! भगवान श्री हरि नारायण के प्रभाव से तेरे सारे पाप नष्ट हो गए हैं, और अब तू अपने पिता का पास जाकर राज्य प्राप्त कर उनकी सेवा कर। लुम्पक ने जब आकाशवाणी सुनी तो अत्यंत प्रसन्न होते हुए बोला–हे प्रभु! आपकी जय हो! ऐसा कहकर उसने सुंदर–सुंदर वस्त्र धारण किए और अपने पिता से मिलने चल पड़ा। पिता के पास पहुंचकर लुम्पक ने सारी बात पिता को कह सुनाई, राजकुमार के मुंह से सारा वृत्तांत सुनने के बाद राजा ने अपना सारा राज्य लुम्पक को सौंप दिया और स्वयं वन को प्रस्थान कर गया।

अब लुम्पक शास्त्र के अनुसार राज्य चलाने लगा। उसकी पत्नी,पुत्र आदि भी श्री हरि विष्णु के परम भक्त बन गए।  वृद्धावस्था आने पर लुम्पक ने अपने पुत्र को राज–पाठ सौंप दिया और स्वयं भगवान का भजन–कीर्तन करने के लिए वन में चला गया। अंत समय आने पर परम पद को प्राप्त हुआ। जो भी मनुष्य श्रद्धा और भक्ति से एकादशी का व्रत और पूजन करते हैं श्री हरि विष्णु की कृपा से उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और अंत समय में उन्हे मुक्ति प्राप्त हो जाती है। जो मनुष्य एकादशी के माहात्म्य को नहीं समझते हैं उन्हे बिना पूंछ और बिना सींगों वाला  पशु ही समझा जाता है। सफला एकादशी व्रत के माहात्म्य को पढ़ने अथवा सुनने वाले प्राणी को राजसूर्य यज्ञ के बराबर फल प्राप्त होता है।

सफला एकादशी व्रत की आरती :

ॐ जय एकादशी, जय एकादशी, जय एकादशी माता,
विष्णु पूजा व्रत को धारण कर, शक्ति–मुक्ति पाता।
ॐ जय एकादशी माता।।

तेरे नाम गिनाऊँ देवी, भक्ति प्रदान करनी।
गण गौरव की देनी माता, शास्त्रों में वरनी।।
ॐ जय एकादशी माता।।

मार्गशीष के कृष्ण पक्ष की उत्पन्ना, विश्वतारनी जन्मी।
शुक्ल पक्ष में हुई मोक्षदा, मुक्तिदाता बन आई।।
ॐ जय एकादशी माता।।

पौष के कृष्णपक्ष की, सफला नामक है।
शुक्ल पक्ष में होय पुत्रदा, आनन्द अधिक रहै।।
ॐ जय एकादशी माता।।

नाम षटतिला माघ मास में, कृष्णपक्ष आवै।
शुक्लपक्ष में जया कहावै, विजय सदा पावै।।
ॐ जय एकादशी माता।।

विजया फागुन कृष्णपक्ष में शुक्ला आमलकी।
पापमोचनी कृष्ण पक्ष में, चैत्र महाबलि की।।
ॐ जय एकादशी माता।।

चैत्र शुक्ल में नाम कामदा, धन देने वाली।
नाम बरुथिनी कृष्णपक्ष में, वैसाख माह वाली।।
ॐ जय एकादशी माता।।

शुक्ल पक्ष में होय मोहिनी, अपरा ज्येष्ठ कृष्णपक्षी।
नाम निर्जला सब सुख करनी, शुक्लपक्ष रखी।।
ॐ जय एकादशी माता।।

योगिनी नाम आषाढ में जानों, कृष्णपक्ष करनी।
देवशयनी नाम कहायो, शुक्लपक्ष धरनी।।
ॐ जय एकादशी माता।।

कामिका श्रावण मास में आवै, कृष्णपक्ष कहिए।
श्रावण शुक्ला होय पवित्रा, आनन्द से रहिए।।
ॐ जय एकादशी माता।।

अजा भाद्रपद कृष्णपक्ष की, परिवर्तिनी शुक्ला।
इंद्रा आश्विन कृष्णपक्ष में, व्रत से भवसागर निकला।।
ॐ जय एकादशी माता।।

पापकुंशा है शुक्लपक्ष में, आप हरनहारी।
रमा मास कार्तिक में आवै, सुखदायक भारी।।
ॐ जय एकादशी माता।।

देवोत्थानी शुक्लपक्ष की, दुखनाशक मैया।
पावन मास में करूं विनती पार करो नैया।।
ॐ जय एकादशी माता।।

परमा कृष्णपक्ष में होती, जन मंगल करनी।
शुक्लपक्ष में होय पद्धिनी दुख दरिद्र हरनी।।
ॐ जय एकादशी माता।।

जो कोई आरती एकादशी की, भक्ति सहित गावे।
जन गुरुदिता स्वर्ग का वासा, निश्चय वह पावे।।
ॐ जय एकादशी माता।।

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