Ganga Dussehra Vrat Katha

गंगा दशहरा व्रत कथा

गंगा दशहरा व्रत हर साल ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को किया जाता है। मान्यता है कि इस दिन गंगा पहली बार धरती पर अवतरित हुई थीं, इसलिए इसे गंगावतरण तिथि के नाम से भी जाना जाता है। इस तिथि में स्नान, दान, तर्पण से दस पापों का नाश होता है इसलिए इसे दशहरा कहा गया है। यह दिन संवत्सर का मुख माना गया है, इसलिए गंगा के जल में स्नान करके दूध, बताशे, जल, रोली, नारियल, धूप दीप आदि से पूजन करके दान देना चाहिए। गंगा दशहरा मनाने के पीछे एक पौराणिक कथा है। कहा जाता है कि राजा भगीरथ की तपस्या करने की वजह से मां गंगा ने अपना कदम पहली बार ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को धरती पर रखा था। तो चलिए जानते हैं गंगा दशहरा की कहानी:

गंगा दशहरा व्रत कथा:

Maakonaman.com

प्राचीन काल में अयोध्या में सगर नाम के राजा राज्य करते थे। उनके केशिनी और सुमति नाम की दो रानियां थीं।  केशिनि से अंशुमान नामक पुत्र हुआ था और सुमति के साठ हजार पुत्र थे। एक बार महाराज सगर ने अश्वमेघ यज्ञ किया और उस यज्ञ की रक्षा का भार उनके पौत्र अंशुमान ने संभाला। यज्ञ की पूर्ति के लिए एक अश्व छोड़ा गया। यज्ञ को भंग करने के लिए इंद्र ने राजा  सगर के यज्ञीय अश्व का अपहरण कर लिया, और उसे ले जाकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा ने अपने यज्ञ के अश्व को खोजने के अपने साठ हजार पुत्रों को भेजा। राजा के साठ हजार पुत्र अश्व को खोजने निकल पड़े। सारा भूमंडल खोज लिया गया लेकिन अश्व कहीं भी नहीं मिला। अश्व को ढूंढते हुए वह पाताल लोक में जा पहुंचे तो उन्होंने देखा कि उनके यज्ञ का अश्व कपिल मुनि के आश्रम में बंधा हुआ है। उस समय कपिल मुनि तपस्या में लीन थे। राजा के पुत्रों ने यह देखा तो कपिल मुनि को चोर–चोर कह कर पुकारना शुरू कर दिया।  उनके इस प्रकार चिल्लाने की वजह से कपिल मुनि की तपस्या भंग हो गई। जैसे ही कपिल मुनि ने अपने नेत्र खोले तो उनके नेत्रों से क्रोधाग्नि निकली जिससे राजा के साठ हजार पुत्र जलकर भस्म हो गए। 

महाराज सगर ने अंशुमान को अपने भाइयों को खोजने के लिए भेजा। अंशुमान पिता की आज्ञा पाकर अपने भाइयों को खोजता हुआ जब कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचा तो महात्मा गरुण ने उनके भाइयों के भस्म होने का सारा वृत्तांत कह सुनाया। महात्मा गरुण ने अंशुमान से कहा कि यदि अपने भाइयों की मुक्ति चाहते हैं तो आपको गंगा जी को स्वर्ग से धरती पर लाना होगा। परन्तु इस समय आप अश्व को ले जाकर अपने पिता के यज्ञ को पूर्ण कराओ और उसके बाद गंगा को धरती पर लाने का कार्य करना। महात्मा गरुण की बात मानकर अंशुमान ने अश्व सहित यज्ञ मंडप में पहुंकर राजा सगर को सारा वृतांत बताया। महाराज सगर की मृत्यु के बाद अंशुमान ने गंगा जी को पृथ्वी पर लाने के लिए घोर तपस्या की लेकिन वह असफल रहे। इसके बाद उनके पुत्र दिलीप ने भी तप किया परन्तु वह भी असफल रहे। अंत में दिलीप के पुत्र भगीरथ ने गंगाजी को धरती पर लाने के लिए गोकर्ण तीरथ में जाकर कठोर तपस्या की, तपस्या करते करते उन्हे कई वर्ष बीत गए। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उनसे वर मांगने को कहा तो भगीरथ ने गंगाजी को धरती पर ले जाने की मांग की, ब्रह्मा जी ने उन्हे गंगाजी को धरती पर ले जाने का वरदान दे दिया। परन्तु समस्या यह थी कि ब्रह्मा जी के कमंडल से निकलने पर पृथ्वी पर उनके वेग को कौन संभालेगा। क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा उनके वेग को संभाल पायेगी? ब्रह्मा जी ने कहा कि मेरा विचार है कि गंगा के भार को और उनके वेग को संभाल पाने की शक्ति केवल भगवान शिव में है। इस लिए उचित यही होगा कि इसके लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए।

Maakonaman.com

महाराज भगीरथ ने भगवान शंकर जी की कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर गंगा जी को अपनी जटा में संभालने के लिए तैयार हो गए। उसके बाद जब गंगाजी देवलोक से पृथ्वी की ओर बढ़ीं तो भगवान शंकर जी ने उन्हे अपनी जटाओं में समेट लिया और अपनी जटाएं बांध लीं। उसके बाद कई वर्षों तक गंगाजी को शिवजी की जटाओं से निकलने का मार्ग नहीं मिल सका। अब महाराज भगीरथ को और भी ज्यादा चिंता हुई, उन्होंने भगवान शिव से पुनः अनुनय–विनय की तब शिवजी गंगाजी को अपनी जटाओं से मुक्त करने को तैयार हुए। इस प्रकार शिवजी की जटाओं से मुक्त हो कर गंगा जी हिमालय की घाटियों में कल–कल निनाद करती हुई मैदान की ओर बढ़ीं। जिस रास्ते से गंगाजी जा रही थीं उसी रास्ते में ऋषि जह्नु का आश्रम था, अपनी तपस्या में विघ्न समझकर वे गंगाजी को पी गए। भगीरथ के प्रार्थना करने पर उन्होंने गंगा जी को पुनः जांघ से निकाल दिया।

ऋषि जह्नु की जांघ से निकलने की वजह से तभी से गंगाजी जह्नु पुत्री या जान्हवी कहलाईं। इस प्रकार से अनेकों स्थलों को पार करने के बाद जान्हवी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुंच कर सगर के साठ हजार पुत्रों के अवशेष को तारकर मुक्त किया। उसी समय ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर भगीरथ के कठिन तप और सगर के साठ हजार पुत्रों को अमर होने का वरदान दिया। ब्रह्मा जी ने कहा कि हे भगीरथ! तुम्हारे नाम पर गंगा जी का नाम भगीरथी होगा। अब तुम जाओ और अयोध्या का राज–पाठ संभालो। ऐसा वरदान देकर ब्रह्मा जी अंतर्ध्यान हो गए। इसी प्रकार भगीरथ पृथ्वी पर गंगा को अवतरित करके बड़े भाग्यशाली हुए। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। गंगा प्राणिमात्र को जीवन ही नहीं देती है अपितु मुक्ति भी देती है। युगों युगों तक बहने वाली गंगा जी की धारा महाराज भगीरथ की तपस्या की गाथा सुनाती है।

गंगा जी की आरती

ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता,
जो नर तुमको ध्याता, मनवांछित फल पाता,
ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता।

चंद्र सी ज्योति तुम्हारी, जल निर्मल आता,
शरण पड़े जो तेरी, सो नर तर जाता,
ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता।

पुत्र सगर के तारे, सब जग को ज्ञाता,
कृपा दृष्टि हो तुम्हारी, त्रिभुवन सुख दाता,
ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता।

एक बार जो प्राणी,शरण तेरी आता,
यम की त्रास मिटाकर, परमगति पाता,
ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता।

आरती मातु तुम्हारी, जो नर नित गाता,
सेवक वही सहज में, मुक्ति को पाता,
ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता।

You may also like...

Leave a Reply