Guru Pradosh Vrat Katha In Hindi.

गुरु प्रदोष व्रत कथा

गुरुवार के दिन जो प्रदोष पड़ता है उसे गुरु प्रदोष व्रत कहा जाता है।  गुरु प्रदोष व्रत, हिंदू पंचांग के अनुसार इस दिन गुरु  बृहस्पति और शिव जी की पूजा एक साथ की जाती है।  भगवान बृहस्पति जी  शिव जी के अनुकूल हैं और इस प्रकार, दोनों की एक साथ पूजा करने से आपकी आयु लंबी होने का आशीर्वाद प्राप्त होता है।  गुरु प्रदोष व्रत का पालन करने से आप बृहस्पति और शिव जी के साथ–साथ  पार्वती माता का आशीर्वाद भी  पाते हैं।

गुरु प्रदोष व्रत कथा

एक बार की बात है, इन्द्र और वृत्रासुर की सेना में घनघोर युद्ध शुरू हो गया।   देवताओं ने दैत्य सेना को पराजित कर दिया। यह देख वृत्रासुर अत्यन्त क्रोधित होकर स्वयं युद्ध करने के लिए आ गया।   उसने अपनी शैतानी ताकतों के साथ एक विशाल रूप धारण कर लिया, जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था और वह देवताओं को धमकाने लगा।  देवताओं को अपने सर्वनाश की आशंका होने लग,  और वह मारे जाने के डर से भगवान बृहस्पति की शरण में चले गए।

बृहसप्ति महाराज ने उनकी बात सुनी और बोले- पहले मैं तुम्हे वृत्रासुर का वास्तविक परिचय दे दूं।  वृत्रासुर बड़ा तपस्वी और कर्मनिस्ठ है।  उसने गंधमादन पर्वत पर घोर तपस्या कर शिव जी को प्रसन्न किया।  पूर्व समय में वह चित्ररथ नाम का राजा था। एक बार वह अपने विमान से कैलाश पर्वत चला गया।  वहां शिव जी के बगल में माता पार्वती को विराज मान देख वह उपहास पूर्वक बोला- ‘हे प्रभो! मोह-माया में फंसे होने के कारण हम तो  स्त्रियों के वशीभूत रहते ही हैं,  किन्तु देवलोक में ऐसा दृष्टिगोचर नहीं हुआ कि स्त्री आलिंगनबद्ध हो सभा में बैठे।’ चित्ररथ के यह वचन सुन सर्वव्यापी शिवशंकर हंसकर बोले- ‘हे राजन! मेरा व्यावहारिक दृष्टिकोण पृथक है। मैंने मृत्युदाता-कालकूट महाविष का पान किया है, फिर भी तुम साधारण जन की भांति मेरा उपहास उड़ाते हो!’माता पार्वती क्रोधित हो चित्ररथ से बोलीं – ‘अरे दुष्ट! तूने सर्वव्यापी महेश्‍वर के साथ ही मेरा भी उपहास उड़ाया है। अतएव मैं तुझे वह शिक्षा दूंगी कि फिर तू ऐसे संतों के उपहास का दुस्साहस नहीं करेगा- अब तू दैत्य स्वरूप धारण कर विमान से नीचे गिर, मैं तुझे शाप देती हूं।’ जगदम्बा भवानी के अभिशाप से चित्ररथ राक्षस योनि को प्राप्त हो गया और त्वष्टा नामक ऋषि के श्रेष्ठ तप से उत्पन्न हो वृत्रासुर बना।

गुरुदेव बृहस्पति आगे बोले- ‘वृत्तासुर बाल्यकाल से ही शिवभक्त रहा है ।  अतः हे इन्द्र तुम बृहस्पति प्रदोष व्रत कर शंकर भगवान को प्रसन्न करो।’ देवराज ने गुरुदेव बृहस्पति की आज्ञा का पालन कर बृहस्पति प्रदोष व्रत किया ।  गुरु प्रदोष व्रत के प्रताप से इन्द्र ने शीघ्र ही वृत्रासुर पर विजय प्राप्त कर ली और देवलोक में शान्ति छा गई ।  अतः, सभी को महादेव और देवी पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए  गुरुवार के दिन प्रदोष व्रत जरूर  करना चाहिए।  बोलो उमापति शंकर भगवान की जय!

गुरु प्रदोष व्रत की पूजा विधि:

  1. पीतल का एक गिलास लें और उसमें गुड़, हल्दी और चने के कुछ बीज डालें, उन्हें कुछ समय के लिए भिगो दें।
  2. केले के पेड़ की जड़ों में गिलास की सामग्री डालें और गाय के घी का दीपक जलाएं।
  3. चटाई पर बैठकर गुरु बृहस्पति स्तोत्र का तीन बार जाप करें।
  4. केले के पेड़ की जड़ों से कुछ मिट्टी इकट्ठा करें। और उसमें थोड़ा पानी डाल कर उसको गीला कर लें।
  5. यदि पति और पत्नी दोनों ने व्रत का पालन किया है तो इस मिट्टी का तिलक लगाऐं।

प्रदोष काल के उपवास में हरे मूंग का सेवन करना चाहिए, क्योंकि हरा मूंग पृथ्वी तत्व है और मंदाग्नि को शांत रखता है।प्रदोष काल में शिवजी की पूजा करने के बाद ही भोजन ग्रहण करें।  प्रदोष व्रत में लाल मिर्च, अन्न, चावल और सादा नमक नहीं खाना चाहिए।  यदि संभव हो तो पूरा व्रत रखें और केवल फलाहार ही करें।

प्रदोष व्रत में गाई जाने वाली आरती

जय शिव ओंकारा, ओम जय शिव ओंकारा।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धांगी धारा॥
ओम जय शिव ओंकारा
एकानन चतुरानन पंचानन राजे।
हंसासन गरूड़ासन वृषवाहन साजे॥
ओम जय शिव ओंकारा

दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहे।
त्रिगुण रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे॥
ओम जय शिव ओंकारा

अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी।
त्रिपुरारी कंसारी कर माला धारी॥
ओम जय शिव ओंकारा

श्वेतांबर पीतांबर बाघंबर अंगे।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे॥
ओम जय शिव ओंकारा

कर के मध्य कमंडल चक्र त्रिशूलधारी।
सुखकारी दुखहारी जगपालन कारी॥
ओम जय शिव ओंकारा

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका॥
ओम जय शिव ओंकारा

लक्ष्मी व सावित्री पार्वती संगा।
पार्वती अर्द्धांगी, शिवलहरी गंगा॥
ओम जय शिव ओंकारा।

पर्वत सोहैं पार्वती, शंकर कैलासा।
भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा॥
ओम जय शिव ओंकारा

जटा में गंग बहत है, गल मुण्डन माला।
शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला॥
ओम जय शिव ओंकारा।।

काशी में विराजे विश्वनाथ, नंदी ब्रह्मचारी।
नित उठ दर्शन ,पावत महिमा अति भारी॥
ओम जय शिव ओंकारा।।

त्रिगुणस्वामी जी की आरति जो कोइ नर गावे।
कहत शिवानंद स्वामी सुख संपति पावे॥
ओम जय शिव ओंकारा।।

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