Jivitputrika Vrat aur Katha

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जीवितपुत्रिका व्रत:

जीवितपुत्रिका का व्रत आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को किया जाता है। जो स्त्री जीवितपुत्रिका का व्रत करती है उसका उद्देश्य पुत्र के जीवन की रक्षा करना यानि कि पुत्र के दीर्घायु होने की कामना करना होता है। बच्चों का मरणदोष दूर हो जाता है। व्रत रखने के लिए यह आवश्यक है कि स्वयं स्नान करने के बाद भगवान सूर्य नारायण की मूर्ति को स्नान कराने के पश्चात उन्हे भोग लगाएं और आचमन कराकर धूप, दीप से आरती उतारें। भोग को प्रसाद के रूप में सभी को बांटे।

इस दिन सूर्य नारायण भगवान की पूजा की जाती है। जिनके पुत्र तो होते हों परंतु जीवित नहीं रहते, इस व्रत को करने से उनके पुत्र जीवित रहने लगते हैं। इस व्रत को करने से बच्चों का मरणदोष दूर हो जाता है। इस दिन बाजरा और चने से बने पदार्थ भोग में लगाए जाते हैं। इस व्रत में काटे हुए फल और शाक नहीं खाने चाहिए और ना ही काटना चाहिए।

जीवितपुत्रिका व्रत की कथा:

बहुत समय पहले की बात है जब भगवान श्री कृष्ण द्वारिकापुरी में रहते थे। उस समय एक ब्राह्मण भी द्वारिका में रहता था। उस ब्राह्मण के सात पुत्र हुए परन्तु बचपन में ही काल के ग्रास बन गए थे इस बात से ब्राह्मण बहुत दुखी था। एक दिन वह भगवान श्री कृष्ण के पास गया और बोला कि हे भगवन्! आपके राज्य में आपकी कृपा से मेरे सात पुत्र हुए परन्तु उनमें से कोई भी जीवित नहीं बचा है, प्रभु आप कृपया मुझे इसका कारण बताइए कि क्यों मेरे पुत्र जीवित नहीं रहते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि ” हे ब्राह्मण! सुनो, इस बार तुम्हारे घर में को पुत्र होगा उसकी आयु तीन वर्ष होगी, उसकी उम्र बढ़ाने के लिए तुम भगवान सूर्य नारायण की पूजा करो और पुत्रजीवी व्रत को धारण करो, इससे तुम्हारे पुत्र की आयु बढ़ जाएगी। ब्राह्मण ने भगवान श्री कृष्ण के बताए अनुसार वैसा ही किया। जब वह सपरिवार हाथ जोड़कर और खड़े हो कर इस प्रकार विनती कर ही रहा था–

सूर्यदेव विनती सुनो, पाऊं दुःख अपार। उम्र बढ़ाओ पुत्र की कहता बारंबार।।

उसकी प्रार्थना सुनकर सूर्यदेव का रथ वहीं रुक गया। ब्राह्मण की विनती से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने अपने गले से एक माला ब्राह्मण पुत्र के गले में डाल दी और आगे चल दिए। थोड़ी देर में यमराज उस ब्राह्मण के पुत्र के प्राण लेने के लिए आ गए। यमराज को देखकर ब्राह्मण और ब्राह्मणी कृष्ण जी को झूठा कहने लगे, भगवान श्री कृष्ण इसको अपना अनादर जानकर तुरंत ही सुदर्शन चक्र के लेकर आ गए और बोले कि जो माला बच्चे के गले में पड़ी है उसे निकाल कर यमराज के ऊपर डाल दो। यह सुनकर ब्राह्मण ने बच्चे के गले से माला उतारी तो यमराज डरकर भाग गए लेकिन यमराज की छाया रह गई। उस फूल की माला को छाया के ऊपर फेंकने से वह छाया शनि के रूप में आकर भगवान श्री कृष्ण से प्रार्थना करने लगी। भगवान श्री कृष्ण को शनि के ऊपर दया आ गई और उन्होंने शनि से पीपल के वृक्ष पर रहने के लिए कहा। तब से शनि की छाया पीपल के वृक्ष पर निवास करने लगी।

इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने उस ब्राह्मण के पुत्र को आयु बढ़ा दी। हे भगवन्! आपने जिस प्रकार उस ब्राह्मण के पुत्र की आयु बढ़ाई उसी प्रकार सभी की उम्र बढ़ाना।

कैसे शुरू हुआ जीवितपुत्रिका व्रत:

इस कथा के अनुसार जीमूतवाहन गंधर्व के बुद्धिमान राजा थे। जीमूतवाहन शासक बनने से संतुष्ट नहीं थे और परिणामस्वरूप उन्होंने अपने भाइयों को अपने राज्य की सभी जिम्मेदारियां दीं और अपने पिता की सेवा के लिए जंगल चले गए। एक दिन जंगल में भटकते हुए उन्हें एक बुढ़िया विलाप करती हुई मिलती है। उन्होंने बुढ़िया से रोने का कारण पूछा। इसपर उसने उसे बताया कि वह सांप (नागवंशी) के परिवार से हैं। और उसका एक ही बेटा है। एक शपथ के रूप में हर दिन एक सांप पक्षीराज गरुड़ को चढ़ाया जाता है और उस दिन उसके बेटे का नंबर था। उसकी समस्या सुनने के बाद जिमूतवाहन ने उन्हें आश्वासन दिया कि वह उनके बेटे को जीवित वापस लेकर आएंगे। जब गरुड़ आता है और अपनी अंगुलियों से लाल कपड़े से ढंके हुए जिमूतवाहन को पकड़कर चट्टान पर चढ़ जाता है। उसे हैरानी होती है कि जिसे उसने पकड़ा है वह कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दे रहा है। तब वह जिमूतवाहन से उनके बारे में पूछता है। तब गरुड़ जिमूतवाहन की वीरता और परोपकार से प्रसन्न होकर सांपों से कोई और बलिदान नहीं लेने का वादा करता है। मान्यता है कि तभी से ही संतान की लंबी उम्र और कल्याण के लिए जितिया व्रत मनाया जाता है।

पक्षीराज गरुड़ ने जीमूत वाहन को जीवनदान दिया था। इस तरह से जीमूत वाहन ने नाग वंश की रक्षा की थी। इस घटना के बाद से ही हर वर्ष आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जितिया व्रत या जीवितपुत्रिका व्रत रखा जाने लगा। इस दिन गंधर्व राजकुमार जीमूत वाहन की पूजा करने का विधान है। मान्यता है कि इस व्रत करने से पुत्र दीर्घायु, सुखी और निरोग रहते हैं, और उनका मरणदोष दूर होता है।

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