Shradh Paksh ki kahani

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श्राद्ध पक्ष:

हिन्दू धर्म में पितृ पक्ष का बहुत महत्व है। श्राद्ध पक्ष में सभी अपने पितरों को याद करते हैं और उन्हें बुलाकर उनसे आशीर्वाद लेते हैं। बहुत ही कम लोगों को मालूम होगा कि सबसे पहले श्राद्ध किसने किया था। महाभारत में श्राद्ध पक्ष के बारे में बताया गया है जिसमें भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के बारे में बताई थीं और महाभारत में इस बात का भी उल्लेख है कि श्राद्ध पक्ष की परंपरा कैसे शुरू हुई।

श्राद्ध पक्ष की कहानी:

पितृ पक्ष की कथा के अनुसार बहुत समय पहले की बात है किसी गांव में जोगे और भोगे नाम के दो भाई थे। दोनों भाई अलग–अलग रहते थे, जोगे धनी था और भोगे बहुत गरीब था। परंतु दोनों भाईयों में बहुत ही प्रेम था। जोगे की पत्नी को धन का बहुत अभिमान था जबकि भोगे की पत्नी बहुत सरल स्वभाव की थी।

पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने उससे पितरों का श्राद्ध करने की बात की तो जोगे उसे बेकार का कार्य बताकर उसे टालने लगा, लेकिन उसकी पत्नी को मालूम था कि वह श्राद्ध नहीं करेगी तो लोग बातें बनायेंगे। और उसे अपने मायके वालों को भी दावत देने का अच्छा अवसर लग रहा था जिससे कि वह अपनी शान दिखा सके। उसने जोगे से कहा कि आप शायद मेरी परेशानी की वजह से ऐसा करने के लिए मना कर रहे हैं लेकिन मुझे इसमें कोई भी परेशानी नहीं होगी। मैं भोगे की पत्नी को बुला लूंगी हम दोनों मिलकर सारा काम कर लेंगी। उसने जोगे को अपने मायके न्योता देने के लिए भेज दिया। दूसरे दिन सुबह सुबह उसने भोगे की पत्नी को बुला लिया। भोगे की पत्नी आते ही काम में जुट गई, उसने आते ही सबसे पहले रसोई तैयार की और जल्दी ही उसने अनेक प्रकार के पकवान बनाकर तैयार कर दिए। सभी काम निपटाकर भोगे की पत्नी अपने घर चली गई क्योंकि उसे भी तो अपने पितरों का श्राद्ध करना था।

जोगे की पत्नी ने ना तो उसे रोका और ना ही भोजन पर आने के लिए कहा। जल्दी ही दोपहर हो गई और पितर देव धरती पर आ गए। जोगे–भोगे के पितर पहले जोगे के यहां गए तो वहां पर उन्होंने देखा कि जोगे के ससुराल वाले भोजन करने में जुटे हुए हैं। यह देखकर वे बहुत निराश होकर भोगे के यहां गए परंतु वहां पर कुछ भी नहीं था क्योंकि भोगे बहुत गरीब था उसने मात्र पितरों के नाम पर अगियारी ही की थी। पितरों ने उसकी राख चाटी और भूखे ही नदी के तट पर जा पहुंचे।

थोड़ी देर में ही सारे पितर नदी के तट पर इक्कठे हो गए और अपने यहां के श्राद्धों की तारीफ करने लगे। जोगे और भोगे के पितरों ने भी अपनी आपबीती सुनाई। फिर वे सोचने लगे कि अगर भोगे के पास धन होता तो शायद उन्हें इस तरह भूखा ना लौटना पड़ता। यही सोचकर वे सब नाचने और गाने लगे कि भोगे के घर धन हो जाए!! भोगे के घर धन हो जाए। भोगे के घर में कुछ भी खाने को नहीं था शाम होने लगी थी और भोगे के बच्चों को खाने को कुछ भी नहीं मिला था। बच्चों ने अपनी मां से कहा मां हमें बहुत भूख लगी है तो भोगे की पत्नी ने उन्हे बहलाने के लिए कहा कि जाओ आंगन में हांडी उल्टी रखी है उसे जाकर खोल लो और जो कुछ भी मिले उसे बांटकर खा लो।

बच्चों ने जब हांडी उठाई तो उन्होंने देखा कि हांडी तो मोहरों से भरी पड़ी है। वे दौड़कर मां के पास गए और सारी बात बताई। भोगे की पत्नी ने आंगन में आकर यह सब देखा तो वह भी हैरान हो गई। अपने पितरों की वजह से भोगे भी धनी हो गया। लेकिन धन पाकर भी भोगे घमंडी नहीं हुआ।

दूसरे साल जब पितृ पक्ष आया तो श्राद्ध के दिन भोगे की पत्नी ने छप्पन प्रकार के व्यंजन बनाए। ब्राह्मणों को बुलाकर पितरों का श्राद्ध किया और फिर ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान–दक्षिणा देकर विदा किया। जोगे और उसकी पत्नी को सोने–चांदी के बर्तनों में भोजन कराया। इससे पितर बहुत खुश हुए और तृप्त हो कर अपने स्थान पर लौट गए।

श्राद्ध का अर्थ:

श्रद्धा पूर्वक अपने पितरों को प्रसन्न करना चाहिए। सनातन धर्म के अनुसार जो परिजन अपनी देह त्याग कर चले गए हैं, उनकी आत्मा को तृप्ति के लिए सच्ची श्रद्धा के साथ जो तर्पण किया जाता है उसे श्राद्ध कहा जाता है। मान्यता है कि श्राद्ध पक्ष में यमराज जीव को मुक्त कर देते हैं कि वह अपने स्वजनों के यहां जाकर अपना तर्पण कर सके।

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