Hal Shashti Ki 6 kahaniya ek sath..Lalhi chat vrat Katha..
हलषष्ठी व्रत कथा:

एक बार द्वापर युग में धर्मराज युधिष्ठिर और भगवान श्रीकृष्ण एक ही स्थान पर विराजमान थे। तब धर्मराज युधिष्ठिर बोले कि हे भगवान!! इस जगत में पुत्र प्राप्ति की मनोकामना पूर्ण करने वाला कौन सा व्रत उत्तम है। तब भगवान श्रीकृष्ण बोले हे राजन्!! हलषष्ठी के समान उत्तम कोई दूसरा व्रत नहीं है। युधिष्ठिर बोले हे महाराज यह व्रत कब और किस प्रकार प्रकट हुआ। श्रीकृष्ण जी बोले हे राजन् मथुरा पुरी में एक राजा कंस था, सुर, नर, मुनि सब उसके आधीन थे। राजा कंस की बहन का नाम देवकी था। वह विवाह हुई तब कंस ने उसका विवाह वासुदेव के साथ कर दिया। जब वह विदा हो कर ससुराल जा रही थी तभी एक आकाशवाणी हुई कि हे कंस जिस देवकी को तू प्रेम से विदा कर रहा है उसी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बालक द्वारा तेरी मृत्यु होगी।

यह सुनकर कंस ने क्रोध में भरकर देवकी और वासुदेव को बंदी बना लिया और जेलखाने में डाल दिया। समय बीतने के साथ देवकी के पुत्र पैदा हुए, कंस एक करके सभी को मारता जाता। इस प्रकार जब देवकी के छह पुत्र मारे गए तो एक दिन देवलोक से महामुनि नारद देवकी से मिलने जेलखाने पहुंचे। और उसे दुखी देखकर कारण पूछा देवकी ने रोते हुए सारा हाल बताया। तब नारद जी ने कहा कि हे बेटी दुःखी मत होओ तुम श्रद्धा और भक्ति पूर्वक हलषष्ठी माता का व्रत करो जिससे तुम्हारे सारे दुःख दूर हो जायेंगे। तब देवकी ने माता की महिमा पूछी। नारद जी बोले हे देवकी मैं तुम्हे एक पुरातन कथा सुनाता हूं ध्यान से सुनो!!
हलषष्ठी व्रत की पहली कहानी:

बहुत समय पूर्व चंद्रवृत नमक एक प्रतापी राजा था। जिसका एक ही पुत्र था। राजा ने नगर के समीप एक तालाब खुदवाया था। परंतु उसमें जल नहीं रहता था कितना भी जल भरा जाए तुरंत ही सूख जाता था। जलहीन तालाब को देखकर नगरवासी राजा को कोसते थे। राजा सदैव दुःखी रहते और कहते थे कि मेरा धन और धर्म दोनो नष्ट हो गया। एक दिन स्वप्न में वरुण देव ने राजा से कहा कि हे राजा, यदि तुम अपने पुत्र की बलि दोगे तो तालाब जल से भर जायेगा।
प्रात: काल राजा ने स्वप्न की बात दरबार में बताई और कहा, कि मैं अपने इकलौते पुत्र का बलिदान नहीं कर सकता चाहे तालाब में पानी रहे चाहे ना रहे। राजा की बात सुनकर राजकुमार बोला मैं स्वयं अपनी बलि दे दूंगा, क्योंकि मेरे बलिदान से पिता का सुयश बढ़ेगा तथा जनता को सुख मिलेगा। यह कहकर राजकुमार स्वयं तालाब की तलहटी में जाकर बैठ गया और उसके प्रभाव से तालाब तत्काल जल से भर गया। उसमें कमल के पुष्प खिल गए तथा सभी जल जंतु बोलने लगे। राजा ने यह समाचार सुना और दुःखी होकर वन को चला गया। वन में पांच स्त्रियां हलषष्ठी माता की पूजा कर रही थीं। राजा द्वारा व्रत विधि पूछने पर स्त्रियों ने माता की महिमा का वर्णन कर दिया। जिसको सुनकर राजा वापस लौट आए और रानी से कहा कि तुम भी हल षष्ठी माता का व्रत तथा पूजन करो। राजा की बात सुनकर रानी उसी दिन से व्रत रखकर पूजा करने लगीं। जिसके प्रभाव से कुछ समय बाद राजकुमार तालाब से बाहर आकर खेलने लगा। राजा यह सुनकर प्रसन्न हुए और राजकुमार को महल में ले आए। तभी से रानी प्रतिवर्ष हलषष्ठी माता का व्रत करने लगीं।
हलषष्ठी व्रत की दूसरी कहानी:

उज्जैन नगरी में एक पुरुष के दो स्त्रियां रेवती तथा मानवती थीं। भाग्य से मानवती के दो लड़के थे परन्तु रेवती के कोई संतान ना थी। सौत के दो लड़कों को देखकर वह हमेशा ईर्ष्या से जला करती थी। एक दिन ईर्ष्या के वशीभूत हो कर वह मानवती से बोली हे बहन, तुम्हारे पिता बहुत बीमार हैं उन्होंने तुम्हे देखने के लिए बुलवाया है। अभी एक राहगीर यह सन्देश देकर गया है। यह सुनकर मानवती अपने दोनों पुत्र रेवती को सौंप कर पति की आज्ञा लेकर अपने पिता के घर चली गई।
इधर रेवती ने सौत के दोनों लड़कों को मारकर गांव के बाहर जंगल में फेंक दिया। उधर मानवती पिता को सकुशल देखकर चकित हुई और अनिष्ठ की आशंका से वापस लौटने लगी। तब मानवती की माता बोली कि हे बेटी, आज हलषष्ठी माता का व्रत है। अतः आज मत जाओ, बात सुनकर मानवती ने व्रत रखकर शाम को हलषष्ठी माता का पूजन किया और प्रार्थना की कि हे माता मेरे बच्चों को संकट से बचाए रखना तथा दीर्घायु करना।
दूसरे दिन वह माता पिता को प्रणाम करके अपने घर को चली। गांव के बाहर अपने दोनों बच्चों को खेलता देख कर सोचने लगी कि मेरे बच्चों को यहां कौन लाया। तब बच्चों ने कहा कि हमें तो विमाता रेवती ने मारकर यहां फेंक दिया था। सायंकाल देवी माता आकर हमें जीवन दान दे गई हैं। इसे हलषष्ठी माता की कृपा मानकर मानवती माता का गुणगान करती हुई अपने घर को आई। गांव की सभी स्त्रियां सुनकर आश्चर्य करने लगीं और उसी दिन से सभी हलषष्ठी माता का पूजन तथा व्रत करने लगीं।
हलषष्ठी माता की तीसरी कहानी:

दक्षिण दिशा के एक सुन्दर नगर में एक धनवान ग्वाला रहता था। उसकी पत्नी अत्यंत चालाक तथा कंजूस थी। अपने पांचों पुत्रों के साथ वह सुख से रहती थी। एक समय हलषष्ठी के दिन वह ग्वालिन गाय के दही को भैंस का दही बताकर सारा दही बेच आई। जबकि इस दिन भैंस का दही लेने का विधान है। उसके इस पाप से पांचों पुत्र मर गए। तब ग्वालिन माथा पटक–पटक कर रोने लगी। इतने में उसकी एक पड़ोसन ने आकर उसका हाल चाल पूछा। उसने रोते हुए सारी बात बताई तब वह बोली हे ग्वालिन!! तुम तुरन्त सभी के घर जाकर वह दही वापस लेकर भैंस का दही देकर आओ। यह सुनकर ग्वालिन सभी के घर जाकर वह दही वापस लेकर भैंस का दही दे आई।
जिससे हलषष्ठी माता का कोप शांत हो गया और उनकी कृपा से ग्वालिन के पांचों पुत्र जीवित हो गए। वह ग्वालिन भी उस दिन से हलषष्ठी माता का व्रत तथा पूजा करने लगी। अतः अब उसका जीवन सुखमय व्यतीत होने लगा।
हलषष्ठी माता की चौथी कहानी:

दक्षिण दिशा में पहाड़ों के बीच सघन वन में एक गांव बसा हुआ था। उस गांव में एक धनी भीलनी निवास करती थी। उस भीलनी की एक दासी थी जो बड़े सुन्दर स्वभाव की थी। उसके दो सुन्दर रूपवान बालक थे तथा मालकिन भीलनी के पांच लड़कियां थीं। भीलनी दासी के दोनों सुन्दर बालकों को बहुत प्यार करती थी। इस प्रकार भादों मास की छठ को भीलनी ने दासी को जंगल से लकड़ी लेने को भेज दिया। दासी लकड़ी लेने जंगल में गई इधर उसके बच्चों का गांव के लड़कों से झगड़ा हो गया और उन्होंने दासी के बच्चों को मार डाला। भीलनी ने दुःखी होकर उन्हे गांव के बाहर ले जाकर जला दिया और उनकी अस्थियां लेकर घर आई।
उधर दासी वन से लकड़ियां लेकर वापस चली तो नदी के किनारे मुनि के आश्रम में पांच स्त्रियों को पूजा करते देख कर उसने उन स्त्रियों के साथ बड़े प्रेम से माता की पूजा की। और अपने बच्चों के कल्याण के लिए माता से प्रार्थना की। उसने माता के इस व्रत को सदा करने का संकल्प लिया। जब वह लकड़ी लेकर वापस चली तो गांव के समीप पहुंचकर देखती है कि उसके दोनों बच्चे खेल रहे हैं। उसने दोनों बच्चों को प्रेम से गोदी में उठा लिया और अपने घर ले आई।
मालकिन भीलनी ने यह देखकर चकित हो कर पूछा तब दासी ने माता के व्रत तथा पूजा का सब हाल कह सुनाया। माता के व्रत का प्रभाव देखकर मालकिन ने भी व्रत करने का संकल्प लिया और सुखी हो गईं।
हलषष्ठी माता की पांचवी कहानी:

दक्षिण दिशा में एक अति सुंदर नगर था। उस नगर में एक धनवान बनिया रहता था। उसकी पत्नी बहुत उत्तम स्वभाव वाली थी। किन्तु उसके पूर्व जन्म के पाप के कारण उसके छह पुत्र हुए परन्तु एक भी जीवित ना रहा। इससे दुःखी होकर वह वन में चली गई। वन में उसे एक तपस्वी मुनि मिले। वैश्य की पत्नी रोती हुई मुनि के चरणों में गिर पड़ी और मुनि के पूछने पर अपने दुःख का कारण बताया। मुनिराज ने ध्यान लगाकर उसके बालक को वरुण, कुबेर, इंद्रलोक में खोजा परन्तु बालक नहीं मिला।
तब वह समाधि लगाकर ब्रह्म लोक गए वहां वह बालक दिखाई दिया। मुनि ने कहा हे बालक!! तुम्हारे वियोग में तुम्हारी माता मृत्युलोक में तड़प रही है इसलिए तुम मेरे साथ चलो। यह सुनकर बालक बोला हे मुनिराज!! मैं कई बार गया और वापस आया हूं, अब गर्भ के दुःख से मैं दुःखी हूं अतः अब मैं नहीं जाऊंगा। मुनिराज ने उसे बहुत समझाया परन्तु वह तैयार नहीं हुआ और मुनिराज से बोला, उनसे कहना कि वह मुझे पाने के लिए हलषष्ठी माता का व्रत करें और व्रत के प्रभाव से मेरे उत्पन्न होने पर मेरी पीठ पर पोता से प्रहार करें तो इस क्रिया से मैं दीर्घायु हो जाऊंगा।
यह सुनते ही मुनि की समाधि खुल गई और उन्होंने सामने बैठी वैश्य पत्नी को पुत्र का संदेश कह सुनाया। वह संतुष्ट हो कर घर वापस आई और समय आने पर हलषष्ठी व्रत किया। पुत्र रत्न उत्पन्न होने पर उसने पूजा के अंत में बालक की पीठ पर पोता मारा जिसके प्रभाव से वह दीर्घायु हो गया। अब वह वणिक पत्नी के सदैव हलषष्ठी माता के व्रत करने का संकल्प ले कर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगीं।
हलषष्ठी माता की छठवीं कहानी:

प्राचीन काल में सुभ्रद्र नामक एक राजा था। उसकी पत्नी का नाम सुवर्णा था। उसके हस्ती नामक एक प्रतापी पुत्र था। जिसने अपने नाम से हस्तिनापुरी बसाई थी। एक दिन राजा का लड़का अपनी धाय के साथ गंगा स्नान को गया, वहां उसे एक गाह ने निगल लिया। यह सुनकर सुवर्णा अत्यंत दुःखी हुई और उसने क्रोध में धाती के पुत्र को भाड़ की धधकती अग्नि में डलवा दिया। धाती पुत्र शोक में निर्जन वन में जाकर एक शिव मंदिर में जाकर शिव–पार्वती तथा गणेश जी की उपासना करने लगी। वह प्रतिदिन तृण धान तथा महुआ खाकर समय बिताती थी। व्रत के प्रभाव से भाद्रपद कृष्ण पक्ष के एक दिन उसका लड़का अग्नि से निकल आया। राजा–रानी भाड़ से लड़के को जीवित निकलते देखकर आश्चर्य करते हुए पंडितों से उसके जीवित निकलने का कारण पूछने लगे।
तभी इस रहस्य को बताने के लिए शिव जी की आज्ञा से दुर्वासा ऋषि वहां आए। राजा–रानी ने उनका स्वागत किया और लड़के के जीवित निकलने का रहस्य पूछा। दुर्वासा ऋषि बोले हे राजन्!! इस ध्राती ने वन में नियम पूर्वक श्रद्धा से भगवान शंकर पार्वती, गणेश तथा स्वामी कार्तिकेय का पूजन किया है। इसके प्रभाव से ही इसका लड़का जीवित हो गया था। आप भी यह व्रत किया करें। राजा–रानी दुर्वासा ऋषि को विदा करके ध्राती पुत्र के पास गए। उन्हे वहां कुश पर बैठे पलाश के नीचे शिव जी का पूजन करते देखा तो उसे अपनी मां धाती से मिला दिया। धाती ने राजा को बताया कि आपसे भयभीत होकर जिस दिन से मैं वन में आई थी, तब से केवल वायु भ्रमण करते हुए शंकर भगवान,पार्वती, गणेश तथा कार्तिकेय के पूजन में लगी रहती थी। एक दिन रात्रि में शिवजी ने स्वप्न में कहा कि तुम्हारा लड़का जीवित है, क्योंकि तूने श्रद्धा सहित व्रत पूजन किया है।
तुम्हारी रानी भी इस व्रत को करे तो उसका लड़का भी मिल जाएगा तथा उसके और लड़के भी होंगे। यह सुनकर राजा रानी ने श्रद्धा भक्ति सहित इस व्रत को किया जिसके प्रभाव से राजा का लड़का गाह के मुंह से जीवित निकल आया। फिर व्रत के प्रभाव से राजा के और भी पुत्र हुए और उसके राज्य में सुख शांति हो गई। उसके राज्य में अनावृष्ठि , दुर्भिची, महामारी सदा के लिए समाप्त हो गई। इन कथाओं को सुनकर देवकी ने नारद जी से तथा युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से पूछा कि इस व्रत का विधान क्या है तब नारद जी ने देवकी से तथा श्री कृष्ण जी ने युधिष्ठिर से कहा कि भादों मास की कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन यह व्रत का संकल्प कर दिन में एक बार भोजन करें तथा छठ के दिन घर की सफाई कर आंगन को गोबर से लीपकर शुद्ध करें। नदी, तालाब या कुवें के जल से स्नान कर एक बार का धुला हुआ कपड़ा धारण कर सौभाग्य के समस्त सिंगार से सुसज्जित होकर दोपहर के बाद सुंदर स्थान पर गौ के गोबर से लीपकर चौक बनाकर हलषष्ठी माता की मूर्ति बनावें या कागज पर भैंस के घी में सिंदूर मिलाकर मूर्ति बनाकर पीढ़ा या कुश या पलाश के पत्ते के आसन में स्थापित करें। और पूर्व मुख होकर के पूजा करें। पूजा के स्थान पर बच्चों के खिलौने तथा पोता रखें। कलश तथा गणेश जी की पूजा करके श्रद्धा के साथ हल षष्ठी माता की पूजा करें। कृत्रिम तालाब बना उसमें जल देवता वरुण जी का पूजन कर व्रत की कहानियां पढ़े या सुने। पूजा के अंत में महुवे के पत्ते में जल से उपजे धान का प्रयोग करें भोजन करें। उस दिन खेत या हल चली धरती पर न चलें।
इस विधि से को नारी व्रत रखेगी उसकी समस्त मनो कामनाएं पूर्ण होंगी और तथा जीवन सुखमय होगा। व्यास जी के अनुसार इस व्रत के प्रभाव से ही देवकी ने श्री कृष्ण को पाया तथा युधिष्ठिर और दौप्रदी ने व्रत की महिमा सुनकर बहू उत्तरा के साथ व्रत किया। जिसके प्रभाव से उत्तरा के गर्भ से मृत बालक को जीवित पाया। जिसका नाम परीक्षित पड़ा। इस विधान से जो भी नारी ये व्रत करेगी उसकी देवकी तथा दौप्रदी के समान सभी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी।
दोस्तों!! ये हलषष्ठी माता की छह कहानियां हैं। आमतौर पर छह कहानियां एक साथ नहीं मिलती हैं। हलछठ के व्रत में छह कहानियां कहने का विधान है। मेरी यह एक कोशिश पसंद आए तो मेरे यूट्यूब चैनल को भी लाइक करें सब्सक्राइब करें ज्यादा से ज्यादा शेयर करें और मेरे ब्लॉग को लाइक करें।
Excellent
Jai maa halshadti